'काले' रंग को भी मैला करते, क़ानून के ये 'भक्षक' by Journalist-Art Activist Rishabh Shukla










कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, लोकतांत्रिक भारत सरकार की तीन स्वतंत्र शाखाएं हैं। देश में कई स्तर की विभिन्न तरह की अदालतें न्यायपालिका बनाती हैं। भारत की शीर्ष अदालत नई दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट है और उसके नीचे विभिन्न राज्यों में हाई कोर्ट हैं। हाई कोर्ट के नीचे जिला अदालतें और उसकी अधीनस्थ अदालतें हैं जिन्हें निचली अदालत कहा जाता है। इसके अलावा ट्रिब्यूनल, फास्ट ट्रेक कोर्ट, लोक अदालत आदि न्यायपालिका के अंग के रुप में कार्य करते हैं। कानून को बनाए रखने और चलाने में न्यायपालिका की भूमिका अहम् है। यह सिर्फ न्याय नहीं करती बल्कि नागरिकों के हितों की रक्षा भी करती है। न्यायपालिका कानूनों और अधिनियमों की व्याख्या कर संविधान के रक्षक के तौर पर काम करती है। अदालतें, ट्रिब्यूनल और नियामक, यह सब मिलकर देश के हित में एक एकीकृत प्रणाली बनाते हैं। हमारी न्याय प्रणाली की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह विरोधात्मक प्रणाली पर आधारित है, यानि इसमें कहानी के दो पहलुओं को वकीलों द्वारा एक तटस्थ जज के सामने पेश किया जाता है जो तर्क और मामले के सबूतों के आधार पर फैसला सुनाता है। सत्य कटु होता है पर अटल होता है और यदि हम हमारी न्यायिक व्यवस्था की बात करें तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय न्यायिक व्यवस्था में अनैतिक अभ्यास (अनएथिकल प्रैक्टिसेज़) करने वाले कुछ पदाधिकारियों के कारण भ्रष्टता ने जगह बना ली है। उदाहरण स्वरूप रिश्वत लेने वाले किसी जज के खिलाफ बिना मुख्य न्यायाधीश की इजाज़त के एफ.आई.आर दर्ज करने का कोई प्रावधान नहीं है। भारतीय कानून व्यवस्था में दुनिया में सबसे ज्यादा लंबित मामलों का बैकलाॅग है जो कि लगभग 30 मिलीयन मामलों का है। जजों की संख्या बढ़ाने, ज्यादा कोर्ट बनाने की बात हमेशा की जाती है पर इसे लागू करने में हमेशा देर या कमी होती है। सूचना के अधिकार को पूरी तरह से कानून प्रणाली से बाहर रखने के कारण न्यायपालिका के कामकाज में महत्वपूर्ण मुद्दों, जैसे न्याय और गुणवत्ता को ठीक से नहीं जाना जाता है।

इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि विधि शासन को बनाए रखने में वकीलों की भूमिका अहम् है। व्यक्ति अपने अधिकारों के अतिक्रमण होने पर न्यायालय की ओर रुख करता है और अधिकारों के अतिक्रमण की दशा में वकील की सहायता ली जाना आवश्यक है। कोई वकील ही आपके वैधानिक और मौलिक अधिकारों के लिए न्यायालय तक आपको ला सकता है। पर यदि आपके अधिकारों और क़ानून के रक्षक ही 'भक्षक' बन जायें तब आम जनता का न्यायपालिका पर से विश्वास हटना लाज़मी है। स्वार्थ सिद्धि के चलते वकील का काला गाउन पहनते ही कुछ वकीलों की भूमिका इतनी घृणित तथा स्वार्थपरक हो जाती है कि काले रंग को भी मैला करने में उन्हें गुरेज़ नहीं होता। वकीलों द्वारा अपने पेशे का नाजायज़ फ़ायदा उठाते हुए आम जनता को कानूनी जानकारी के अभाव में ठगना, ब्लैक मेल करना, झूठे केस में फंसाना, कानूनी दांव पेंच की खोखली धमकियों द्वारा खुद को सामने वाले से ऊंचा दिखाना आदि जैसे घिनौने मामले अक्सर देखने-सुनने में आते हैं। ऐसे गिरे हुए लोग वकालत जैसे सम्मानित पेशे को कलंकित करने के साथ न्याय व्यवस्था पर भी बदनुमा दाग हैं। ऐसी स्थितियां कई प्रश्नों से साक्षात्कार कराती हैं जैसे क्या न्यायपालिका में न्याय व्यवस्था के नाम पर आम जनता को ठगने वाले आपराधिक प्रवृत्तियों के लोग जिन्हें क़ानून के भक्षक कहना अनुपयुक्त न होगा, अपने पाँव पसार रहे हैं? कानून की आड़ लेकर अनेकों भ्रष्टाचार, ब्लैक मेलिंग आदि के मामले वर्षों तक क्यों दबाए और दफनाए जाते रहे हैं? अपने पेशे से गद्दारी करने वाले वकीलों, न्यायधीशों को ब्लैक लिस्ट क्यों नहीं किया जाता? कोई न्यायाधीश न्यायपालिका में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद पर प्रश्न क्यों नहीं उठाता है? अदालती कार्यवाही को कैमरे में रिकॉर्ड कर लाखों-करोड़ों लोगों को दिखाने की छूट क्यों नहीं दी जाती?

जब संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो सकता है तो न्याय के मंदिर में बज रही घंटियों या पक्ष-विपक्ष में दी जा रही वकीलों की साफ या गंदी दलीलों तथा न्यायाधीशों के रुख में समय-समय पर होने वाले बदलाव के सार्वजनिक प्रसारण पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए? तस्करों, मौत के सौदागरों, बेईमान और भ्रष्ट व्यक्तियों का कच्चा चिट्‍ठा दिन रात टीवी पर दिखाने तथा उचित सजा मिलने पर न्याय तंत्र के प्रति लोगों की आस्था मजबूत ही होगी। इसके अतिरिक्त कानूनी समावेशन की दिशा में सार्थक प्रयास की आवश्यकता है। 

मुकद्दमों के शीघ्र निपटारे के लिए जिला अदालतों तथा उच्च न्यायालयों में एक शिफ्ट के स्थान पर 2 शिफ्ट में कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है। सांध्य अदालतों की शुरूआत कुछ राज्यों में की गई है। इसे यदि सारे भारत में लागू किया जाए तो मुकद्दमों के निपटारे में बहुत बड़ी सुविधा मिल सकती है। अदालतों में मुकद्दमों को लटकाने के प्रयासों को समाप्त करना न्यायाधीशों के हाथ में है। किसी मुकद्दमे में बिना किसी मजबूत कारण के तिथियां आगे न बढ़ाई जाएं। 

अपने पद का दुरूपयोग कर आम जनता का शोषण करने वाले क़ानून के काले लिबास को मैला करने वाले व् न्याय व्यवस्था में गंद मचाने वाले धब्बों का सफाया होना बेहद जरूरी है। न्याय की रक्षा हेतु तत्पर हमारी न्यायपालिका में कार्यरत ईमानदार, साहसी व् अपने पद की गरिमा बनाये रखने वाले पदाधिकारियों को भी इस दिशा में अपना योगदान देना होगा और न्याय व्यवस्था पर लगे 'जोंक' को चिन्हित कर उन्हें अहसास कराना होगा कि वह किसी पर ज्यादती नहीं कर सकते। वक़्त आ गया है की आम आदमी का हमारी न्यायपालिका पर जो विश्वास है उसे दृढ़ विश्वास में तब्दील किया जाए ताकि अन्याय पर न्याय की विजय कायम रहे।




Artists create identities for cultures and societies.  






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